<> एक बार की बात हैं । भगवान श्री कृष्णा द्वारिका में रानी सत्यभामा के साथ बैठे हुए थें । उनके पास ही निकट ही गरुड़ और सुदर्शन चक्र भी विराजमान थें । तभी कोई बात ऐसी छिड़ गयी , कि रानी सत्यभामा नें श्री कृष्ण से प्रश्न किया । कि प्रभु ! त्रेतायुग में आपनें राम के रूप में अवतार लिया था । और सीट आपकी पत्नी थी । लेकिन क्या वे मुझसे भी अधिक रूपवान और सुंदर थीं ।
<> श्री कृष्ण समझ गए कि रानी सत्यभामा को अपनी सुंदरता पर अभिमान हो गया ।
<> रानी सत्यभामा की बात समाप्त होते ही गरुड़ बड़े ही अहंकार से बोल पड़े । कि भगवान इस धरती पर मुझसे भी ज्यादा तेज गति से कोई नहीं उड़ सकता । जैसे मैं इस हवा को चीरता हुआ इतनी तेज गति से उड़ता हूँ । इसके बाद सुदर्शन चक्र का भी अहंकार जाग गया । और वे भी बोल पड़े कि प्रभु , इस संसार में मुझसे ज्यादा शक्तिशाली कोई भी नहीं । अगर मैं आपके साथ न होता तो आपका क्या होता ।
<> भगवान श्री कृष्ण समझ गए ! कि इन तीनों को अपनें ऊपर अहंकार कुछ ज्यादा ही हो चुका हैं । अब मुझे कुछ ऐसी लीला करनी होगी । जिससे इन तीनों का अहंकार चूर – चूर हो जाए । तब श्री कृष्ण जी ने फैसला लिया । कि अब समय आ गया हैं इन तीनों का भ्रम दूर करने का ।
<> तभी गरुड़ से बोले , कि गरुड़ तुम शीघ्र जाओ और हनुमान को बुला लाओ । और उनसे कहना कि भगवान राम माता सीता के साथ उनकी प्रतीक्षा कर रहें हैं । गरुड़ श्री कृष्ण की आज्ञा लेकर हनुमान को बुलाने के लिए उड़ चले ।
<> और सत्यभामा से कृष्ण नें कहा ! कि देवी तुम माता सीता के रूप में श्रंगार करके तैयार हो जाओ । व श्री कृष्ण नें राम जी का रूप धारण कर लिया । भगवान कृष्ण ने सुदर्शन से कहा , कि तुम महल के प्रवेश द्वार पर पहरा दो । और जब तक मैं सवय किसी को न बुलाऊँ तब तक किसी को भी अंदर प्रवेश करनें मत देना । सुदर्शन ने कहा कि प्रभु जब आप नहीं कहेंगे तब तक कोई परिंदा भी अंदर प्रवेश नहीं कर पाएगा । यह कहकर सुदर्शन चक्र प्रवेश द्वार पर बैठ गए ।
<> उधर गरुड़ हनुमान जी के पास पहुँचे और प्रभु का संदेश सुनाया । उन्होंने कहा कि वानर राज हनुमान भगवान श्री राम माता सीता जी के साथ द्वारका में आपसे मिलनें के लिए आपकी प्रतीक्षा कर रहें हैं । आप तत्काल मेरे साथ चलें । मैं आपकों अपनी पीठ पर बैठाकर शीघ्र ही वहाँ ले जाऊँगा ।
<> तभी हनुमान जी नें उनसे कहा ! कि आप चलिए मैं आता हूँ । गरुड़ नें मुस्कुरातें हुए मन में विचार किया । कि हनुमान जी इतनें वृद्ध हो चलें हैं। ये कैसे पहुँचेंगे । हनुमान जी के कहनें पर गरुड़ द्वारिका के लिए उड़ चलें । लेकिन जैसे ही वह महल में दाखिल हुए , वैसे ही गरुड़ के होश उड़ गए । उनके सामनें पहलें से ही हनुमान जी विराजमान थें । जो उनसे बहुत पहलें ही महल पहुँच गए थें । यह देखकर गरुड़ का सिर लज्जा से झुक गया ।
<> अब हनुमान जी महल के अंदरश्री राम जी के सामने जाकर खड़े हो गए । और उन्हें प्रणाम किया । तभी श्री राम जी नें पूछा कि पवनपुत्र तुम बिना आज्ञा के महल में कैसे प्रवेश कर गए । क्या तुम्हें किसी नें रोका नहीं ? तो हनुमान जी नें विनम्रता पूर्वक सिर झुकाकर अपने मुहँ मे से सुदर्शन चक्र को बाहर निकाला , और उनके सामने प्रस्तुत कर दिया ।
<> सुदर्शन चक्र को सौंपने के बाद , हनुमान जी बोले ! कि प्रभु मुझे प्रवेश द्वार पर इस चक्र नें रोका था । इसलिए मैंने इसे अपनें मुहँ मे रख लिया । और आपसे मिलनें अंदर आ गया । इस बात पर भगवान मन ही मन मुस्कुरानें लगे । क्योंकि सुदर्शन चक्र जब हनुमान के मुहँ से निकले तो उनके चेहरे से साफ दिख रहा था , कि हनुमान जी की विशाल शक्ति का रूप देखकर शायद वो अब अपनी शक्ति पर कभी घमंड नहीं करेंगे ।
<> हनुमान जी यहीं पर नहीं रुकें ! उन्होंने भगवान श्री राम जी से , कि आज आपने माता सीता के स्थान पर यह किस तुच्छ दासी को इतना सम्मान दे दिया । कि वह आपकें साथ इस सिहंसान पर विराजमान हैं । इतना सुनकर रानी सत्यभामा का अहंकार दूर हों गया । वह समझ गई कि सीता जी के आगे मैं तो कुछ भी नहीं ।
<> इस प्रकार भगवान श्री कृष्ण नें एक बार में ही तीनों का अहंकार समाप्त कर दिया । और तीनों ही भगवान श्री कृष्ण के आगे लज्जित अवस्था में थें । सभी ने प्रभु से माफी माँगी । और उन्हें सारी बात समझ में आ गयी ।