
महाभारत युद्ध के पश्चात कालांतर में पाँच पांडवों में से एक पांडव अर्जुन के पुत्र का जन्म हुआ । जिसका नाम था राजा परीक्षित । एक बार राजा परीक्षित जंगल मे आखेट करनें गए । उसी दौरान उन्होंने जंगल मे कलुयुग को देखा । परीक्षित ने कलयुग को तुरंत भूलोक छोड़ जाने का आदेश दिया । जिस पर कलयुग राजा के पैरों मे गिर पड़ा और दया की भीख मांगने लगा । राजधर्म कहता है की चरण मे आए को शरण देना ही क्षत्रिय का परम कर्तव्य है ।
जिसके बाद राजा परीक्षित ने कलयुग को पाँच मंदिरा पान वेश्यावृति जुआ हिंसा और पाप द्वारा अर्जित स्वर्ण होगा । वहाँ तुम्हारा निवास होगा । राजा परीक्षित ने इस समय स्वर्ण मुकुट धारण कर रखा था । जो उन्हे अपने पूर्वजों से विरासत मे मिला था । यह स्वर्ण पाप कर्मों मे लिप्त था । इसी बात का फायदा उठाकर कलयुग मुकुट मे प्रवेश कर राजा के सर पर सवार हो गया । जंगल मे आखेट करते राजा परीक्षित को प्यास लगी उन्हे जंगल मे एक कुटिया दिखाई दी। जब उन्होंने अंदर प्रवेश किया तो देखा ऋषि शमीक तपस्या मे लीन बैठे थे । जब परीक्षित ने कोई प्रति उत्तर नहीं दिया ।
जब उन्होंने अंदर प्रवेश किया तो देखा ऋषि ने कई प्रति उत्तर नहीं दिया । जिसके बाद कलयुग के प्रभाव से क्रोध मे आकर राजा परीक्षित ने ऋषि के गले मे मृत सर्प डाल दिया । और अपने महल लौट आए । उन्होंने जैसे ही आराम करने के लिए अपना मुकुट उतारा । उन्हे ज्ञात हुआ उनके हाथों से बहुत बड़ा अनर्थ हो गया है । राजा तुरंत घोड़े पर सवार हुए और ऋषि शमीक की कुटिया के समीप आ पहुचे लेकिन राजा से ठीक पहले ऋषि शमीक के पुत्र ऋषि शृंगी वहाँ पहुच चुके थे । जब अनभिज्ञ ऋषि पुत्र शृंगी ने देखा कि मेरे पिता के गले मे कोई मृत सर्प डालकर चला गया । तो क्रोधित ऋषि पुत्र शृंगी ने यह श्राप दे डाला की जिसकी किसी ने भी कुकृत्य किया है।
उसे आज से ठीक सातवें दिन तक्ष शक नाग डस कर मृत्युलोक पहुच देगा । दूर खड़े राजा परीक्षित ने यह सब सून लिया । जिसके बाद राजा परीक्षित बहुत दुखी हुए । क्योंकि कहा जाता है जब किसी की मृत्यु सर्प के काटने से होती है । उसकी कभी मुक्ति नहीं होती इसके समाधान के लिए राज्य के पुरोहितों ने सात दिनों मे श्रीमद भगवत गीता का पाठ कर राजा परीक्षित को सुनाया जिसके बाद राजा के सप्त तल प्रासाद महल की सुरक्षा इतनी कड़ी कर दी गई कि कोई परिंदा परना भी मार सके लेकिन फिर भी ठीक सातवे दिन तक्षक नाग किसी महल मे प्रवेश कर गया ।
और राजा परीक्षित को डस लिया । जब राजा परीक्षित के पुत्र जन्मेजय को ज्ञात हुआ कि उसके पिता कि मृत्यु तक्षक के डसने से हुआ है तब जन्मेजय ने सांपों का अस्तित्व मिटाने की प्रतिज्ञा ली । और सर्प दमन यज्ञ प्रारंभ कर डाला । जिसके कारण भूलोक के समस्त सर्प यज्ञ की अग्नि मे आकर भस्मी भूत होने लगे । जिसके बाद नागों ने जाकर माता मंसा देवी से रक्षा की गुहार लगाई तब माता ने अपने पुत्र आस्तिक को यज्ञ रुकवाने के लिए भेजा ।
अग्नि मे सर्पों की आहुति दी जा रही थी । तब माता मंसा देवी के पुत्र आस्तिक के सत प्रयत्नों से नागों के प्राणों की रक्षा की गई । समय बीता गया और एक दिन जन्मेजय की भी प्राकृतिक कारण मृत्यु हो गई । लेकिन जब जन्मेजय की मृत्यु हुई तब बदला लेने के लिए नागों ने जन्मेजय की आत्मा को पाताल लोक में बंदी बना लिया । युग बदलते गए और फिर प्रारंभ हुआ कलयुग इस कल के युग मे एक बालक ने जन्म लिया । जब ज्योतिषी ने ग्रह नक्षत्रों का आकलन किया तो ज्योतिषी भयभीत हो गया । और कहा की इस बालक का जन्म घोर अशुभ नक्षत्रों मे हुआ है । ज्योतिषी ने बालक के माता -पिता को उसे समुद्र मे फेकने के लिए बाध्य किया ।
ज्योतिषी के दबाव मे आकर बालक के माता -पिता को ना चाहते हुए भी ऐसा करना पड़ा जब बालक को समुद्र मे फेक दिया गया तो समुद्र मे फेंका गया । तो समुद्र मे मौजूद एक विशाल काय मछली ने उसे निगल लिया । और बालक कई वर्षों तक मछली के पेट के अंदर ही रहा । जिसके बाद मछली तैरते हुए एक समुद्र तट पर पहुंची । और उसी तट पर भगवान शिव माता पार्वती को योग के रहस्य बता रहे थे । योग रहस्य उस बालक के कानों मे भी सुनाई पड़े । और उस बालक ने मछली के पेट मे ही योग का अभ्यास करना प्रारंभ कर दिया । 12 वर्षों की कठिन साधना के बाद एक दिन उस मछली को एक मछुआरे ने पकड़ लिया ।
और जब उस मछुआरे ने मछली को काटा तों उसे मछली के अंदर एक जीवित बालक मिला ,अचरज से भरे मछुआरे ने उस बालक को अपने साथ रख लिया । समय के साथ बालक बड़ा हो रहा था । और एक मछुआरे ने बालक को मछली को पकड़ने के लिए भेजा । जैसे ही बालक ने मछलिया पकड़ी तो देखा बाहर निकलते ही मछलियाँ तड़पने लगी । करुणामई बालक ने सभी मछलियों को वापस जल मे छोड़ दिया । और खाली हाथ वापिस लौट आया ।
जब मछुआरे को इस बात का पता चला तो उसने बालक को बहुत बुरा भला कहा । जब मछुआरे ने बालक को बुरा भला कहा तो वह बालक उस स्थान को छोड़ अज्ञात वास की ओर निकल पड़ा । अपने भरण पोषण के लिए भिक्षा मांगने लगा और अपना सम्पूर्ण जीवन साधना में लगा दिया । समय बीतता गया और समय के साथ – साथ वह बालक एक प्रबुद्ध सिद्ध के रूप मे उभरा कुछ लोग उन्हे भगवान शिव का भक्त तो कुछ लोग उन्हे भगवान शिव का अंश भी मानते है ।
इतने लंबे समय तक मछली के पेट मे पलने के कारण इन्हे गुरु मत्स्येंद्रनाथ के नाम से जाना जाने लगा उन्हे मछलियों का भगवान भी कहा जाता है । इत्तेफाक कहे या कुछ और ऐसी ही घटना का वर्णन ंद तिब्बती प्रस्तुतीकरण में भीं मिलता है कुछ विद्वान इस घटना और बाइबल की योना और वेल की कहानी के बीच समानताएं खीचते है एक बार गुरु मत्स्येंद्रनाथ ने आवाज लगाई भिक्षा मदही तभी एक महिला खाली हाथ ही घर के बाहर आई और कहा भोजन नहीं है ।
तब मत्स्येंद्रनाथ ने कहा कुछ बासी या बच्चों द्वारा छोड़ा गया भोजन ही दे दीजिए तब उस महिला के आखों से अश्रु धारा बहने लगी । क्योंकि वह महिला बांझ थी । गुरु से यह देखा ना गया और गुरु मत्स्येंद्रनाथ ने पुत्र प्राप्ति होगी बोलकर आशीर्वाद के रूप मे प्रशाद उस महिला को खाने के लिए दे दिया । लेकिन कुछ लोगों ने महिला को भड़काया कि उसे इसका सेवन नहीं करना चाहिए इसमें जादू टोना हो सकता है । डर के मारे उस महिला ने व प्रशाद पास ही मे बने एक गोबर के ढेर मे फेक दिया । इसके ठीक 12 वर्षों बाद गुरु मत्स्येंद्रनाथ फिर वहाँ लौटे ।
और उस महिला से उसके पुत्र के बारे मे पूछा तो महिला ने गुरु से झूठ बोल दिया कि उसे कोई पुत्र नहीं हुआ । तभी गुरु मत्स्येंद्रनाथ ने जोर से पुकारा तो 12 वर्षों का एक तेजवान बालक गोबर के ढेर से निकालकर सामने आया गोबर में जन्म होने के कारण उन्हे गोरख नाथ की उपाधि दी गई । जिसके बाद उस महिला ने डरते – डरते सारा व्रतांत गुरु को कह सुनाया और गुरु मत्स्येंद्रनाथ से अपनी भूल की माफी माँगी ।
गुरु ने उसे क्षमा तो कर दिया किंतु महिला के बहुत आग्रह करने के बाद भी नहीं माँने और गोरखनाथ जी को अपने संग ले चले । और इस प्रकार गुरु गोरखनाथ जी को गुरु के रूप मे गुरु मत्स्येंद्रनाथ से शिक्षा और दीक्षा ग्रहण करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ एक दिन गुरु गोरखनाथ राजस्थान में राजगढ़ के पास स्थित दत्त खेड़ा गाव यानि ददरेवा में आ पहुचे और गाव के टीले पर पर अपने धुनी लगाई और तपस्या करने लगे । उस स्थान पर चौहान राजवंश के राजा जेवर जी और घेवर जी का महल था ।
उनकी दो रानियों का नाम बाछल और काछ था । माता बाछल और काछ दोनों जुड़वा बहनें थी ।उन्हे कोई संतान नहीं थी । माता बछल दयालु और शांत स्वभाव की थी । और ज्यादातर समय भगवान की पूजा अर्चना मे लीन रहती थी । किसी ने माता बाछल को पुत्र प्राप्ति के लिए गुरु गोरखनाथ की पूजा करने का सुझाव दिया । जिसके बाद माता बाछल गुरु गोरखनाथ की सच्चे मन से भक्ती करने लगी । और जब उनको खबर मिली कि गुरु गोरखनाथ स्वयं यहाँ पधारें है तो माता बाछल दौड़ते हुए डेरे में पहुंची और गुरु को प्रणाम किया । जिसके बाद माता नित्य प्रति उठकर गुरु गोरखनाथ की धुनि को साफ करती । और वहा गौ माता के गोबर से लिपाई पुताई करती गुरुजी माता बाछल की तपस्या को देखकर बहुत प्रसन्न हुए । और माता बाछल से कहा कल हम कहा कल प्रातः काल हम यहाँ से प्रस्थान करने वाले हैं ।
आप कल सुबह यहाँ जल्दी आए हम आपको पुत्र प्राप्ति आशीर्वाद देंगे । माता बाछल खुशी -खुशी महलों मे लौट आई और सारी बात अपनी बहन काछ को सुनाई । काछ के मन ईर्ष्या उत्पन्न हुई । और चुकी काछ और बाछल हमशक्ल थी । तो माता बाछल की जगह काछ अगले दिन गुरु गोरखनाथ से आशीर्वाद लेने पहुँच गई । गुरु गोरखनाथ मे उन्हे आशीर्वाद के रूप में प्रशाद दिया और कहा तुम दो वीर और पराक्रमी पुत्रों की माता बनोगी ।
जिसके बाद गुरु गोरखनाथ ने वहा से प्रस्थान लिया । जब माता बाछल धुनि पर पहुंची तो देखा गुरु गोरखनाथ वहाँ से प्रस्थान कर चुके थे । दुखी मन से माता बछाल ने सोचा शायद मैंने आने मे विलंब कर दिया । और गुरु मेरे आने के पहले ही प्रस्थान करना पड़ा । जिसके बाद माता बछल ने गुरु के आशीर्वाद मांगने की प्रबल इच्छा से गुरु गुरुगोरखनाथ के पद चिन्हों का पीछा करना पड़ा । कई मिलों की दूरी तय करने के बाद माता गुरु के पास पहुंची और जब गुरु गोरखनाथ ने माता से पीछा करने का कारण पूछा तो माता ने उनसे आशीर्वाद देने की बात कही ।
गुरु गोरखनाथ को समझ आ चुका था काछ ने बाछल के साथ छल किया । इस पर उन्हे अत्यधिक क्रोध आया । माता बाछल के साथ हुए अन्याय को देख कर गुरु गोरखनाथ के मुख से यह शब्द निकले की मैं तुम्हें एक तेजस्वी पुत्र प्राप्ति का वरदान देता हु और यही बालक आगे चलकर काछ के दोनों पुत्रों का वध करेगा । जिसपर माता बाछल ने गुरु से अनुरोध किया की ऐसा ना करें । अगर उसे दो पुत्रों का वरदान दिया है तो , मुझे उसे से कोई आपत्ति नहीं ।
लेकिन गुरु मुख से निकले शब्दों की नियति तय हो चुकी थी । जिसके बाद गुरु गोरखनाथ उनको तेजस्वी पुत्र का वरदान देने के लिए पाताल लोक मे प्रवेश कर गए । और वहाँ से नागों द्वारा बंधी बनाई गई पांडव अर्जुन के पड़ पौत्र राजा जन्मेजय की आत्मा को गल मे छुपा कर भूलोक पर लौट आए , नागों ने गुरु का पीछा किया और अंत मे थक कर नाग वापस पाताल लोक ओर लौट गए । किंतु तक्षक नाग गुरु गोरखनाथ का पीछा करते -करते भूलोक पर आ गया ।
और गुरु के हाथ से गगल छीनकर निगलने लगा सौभाग्य से वहा एक युवक प्रक्षालन यानि साफ सफाई का कार्य कर रहा था । जब उसने देखा कि साधु के हाथ से नाग ने कुछ वस्तु निगल ली तब उसने नाग पर झाडू के डंडे से प्रहार किया । जिसके कारण गगल तक्षक के मुह से नीचे गिर पड़ा । गुरु गोरखनाथ जी ने गगल उठाई और उस यूयवाक को वरदान दिया । कि इस गगल से उत्पन्न बालक बड़ा ही सिद्ध पुरुष होगा । जिसके भजनों का तुम लोग गायन करोगे । ऐसा कह कर गुरु गोरखनाथ जी अंतर्ध्यान हो गए ।
तक्षक नाग भी निराश होकर पाताल वापस लौट गया । जिसके बाद गुरु गोरखनाथ माता बाछल के सामने आकार प्रकट हुए । और उन्हे दिव्य पुत्र प्राप्ति का आशीर्वाद देते हुए वह गगल के प्रसाद के रूप मे दे दिया । और एस प्रकार राजा जन्मेजय को माता बाछल के गर्भ मे स्थान मिला । गुरु गोरखनाथ के आशीर्वाद के अनुसार कालांतर मे एक तरफ घेवर सिंह चौहान की पत्नी माता काल ने तो वही दूसरी ओर जेवर सिंह चौहान की पत्नी माता बादल का एक की समय पर गर्भ धरण हुआ ।
जब काछ ने देखा की बाछल के पेट मे भी बच्चा है तो उसको बाछल पर संदेह हुआ । क्योंकि काछ को लगा की गुरु जी ने केवल मुझे ही पुत्र प्राप्ति का वरदान दिया है । और काछ ने माता बाछल पर कलंक लगते हुए यह बात अपनी ननद छबीली को बताई । जिसके बाद क्रोध मे आग बाबुल होके छबीली बाछल के महलों मे जा पहुंची , और माता बाछल को बहुत खरी खोटी सुनाई । माता बाछल ने उनको सारा व्रतांत मे कह सुनाया किंतु छबीली को माता बाछल को बातों पर विश्वास नहीं हुआ ।
और छबीली अपने पिता अमरपाल सिंह चौहान के समक्ष उपस्थित हुई , और बाछल को कलंकित करते हुए माता बाछल के बारे मे सुनी सुनाई बाते कह डाली । जब अमरपाल सिंह चौहान को बताया गया की माता बाछल ने उनके कुल को कलंकित किया है । तो अमरपाल सिंह चौहान पुत्र वधू माता बाछल पर अत्यधिक क्रोधित हुए और तुरंत गाड़ीवान को बुलाया भेजा और गाड़ीवान को माता बाछल को उनके मायके छोड़ने का आदेश दिया ।
जिसके बाद माता बाछल गाड़ीवान के साथ मायके के लिएं रवाना हुई तपती धूप और गर्मी के चलते माता ने विश्राम करने का सोचा और गाड़ीवान को पास ही के एक पेड़ के नीचे रुकने को कहा विश्राम करते हुए माता बाछल और गाड़ीवान की आख लग गई । और इसी बीच मौके की तलाश मे बैठ तक्षक नाग वहा आ पहुँच और गाड़ीवान को डस लिया । और माता बाछल को डसने के लिए आगे बढ़ने लगा गुरु गोरखनाथ के आशीर्वाद के कारण अपार शक्ति से परिपर्ण वीर गोगाजी के रूप मे माता के कोख से बाहर प्रकट हुए ।
और अपने एक ही हाथ से तक्षक का गला धर दबोचा और तक्षक नाग तड़पने लगा और उनसे दया की भीख मांगने लगा तब जन्मेजय यानी गोगाजी ने उसे तुरंत गाड़ीवान के शरीर से जहर सोक कर उसे पुनः जीवित करने आदेश दिया तक्षक नाग ने आज्ञा अनुसार ऐसा ही किया और भगवन से क्षमा माँग पाताल लोक लौट गया । गाड़ीवान उठा और माता बछल को लेकर सिरसा के लिए रवानगी ली ।
बाछल अपने पिता के महलों मे पहुंची । और जब माता बाछल के पिता को मायके आने का कारण पता चला तो पिता ने सच ओर झूठ का पता लगाने के लिए माता बाछल की परीक्षा लेने का ऐलान किया । और कहा कच्चे सूत से बने धागों की चारपाई को कुएं पर रखा जाएगा । और तुम्हें उस पर सोना होगा और कहा अगर तुम्हारे अंदर सत है तो , कच्चे धागे तुम्हारा वजन सहन कर लेंगे । जिसके बाद माता ने गुरु गोरखनाथ को याद किया । और परीक्षा देने के लिए तैयार हो गई ।
माता बाछल जैसे ही चारपाई पर बैठी वैसे ही सब हैरान हो गए की कच्चे सूत का एक धागा तक नहीं टूटा और माता बाछल गुरु गोरखनाथ को याद कर कच्चे सूत के धागे की चारपाई पर लेट गई । यह प्रमाणित हो चुका था की सतवंती माता बाछल पवित्र है । जिसके बाद माता बाछल के पिता पाल सिंह ने अपने समधी अमरपाल सिंह चौहान को माता बाछल के सतवंती होने का प्रमाण पत्र में लिख भेज दिया और तुरंत जेवर सिंह को भेजकर माता बाछल को वापस ले जाने का सुझाव दिया । तो वह दूसरी तरफ बाछल जब गहरी निद्रा मे सो रही थी तो माता को अपने गर्भ से गोगाजी की आवाज सुनाई पड़ी।
गोंगा जी ने माता बाछल से कहा अगर मेरा जन्म ननिहाल मे हुआ तो कालांतर मे मेरा उपहास किया जाएगा । अतः मुझे पितृ भूमि पर जन्म लेना है जिस पर माता ने गोगाजी से कहा की यह कैसे संभव होगा तुम्हारे पिता हमे यह लेने नहीं आएंगे तब गोगाजी ने माता से कहा की मै पिताजी से बात करूंगा माता बाछल के वियोग मे जंगल मे विश्राम कर रहे जेवर सिंह की आँख लग गई तभी उनके स्वप्न में गोगाजी आए और कहा पितश्री आप तुरंत मेरी माता को रहट से दादरे वाले आइए मेरा जन्म यहा होना निश्चित है ।
तभी अचानक जेवर सिंह की नींद टूटी और देखा सामने राज्य के कुछ सैनिक अमरपाल सिंह का संदेश लेके आए है । संदेश सुनकर जेवर सिंह तुरंत रेहड़ा छल को लेके ददरेव लौट आए । माता बाछल के लौटते ही दादरेव की जमीन हरी भरी हो गई और चारों ओर खुशियों का माहौल छा गया । समय बीटा और आखिर वो समय आ ही गया जब गुरु गोरखनाथ के आशीर्वाद के अनुसार भादव सुदी नव मे विक्रम संवत 1003 को माता बाछल की कोख से वीर गोगाजी का जन्म हुआ तो दूसरी ओर माता काछ ने अर्जुन और सर्जन दो जुड़वा बच्चों को जन्म दिया ।
शुभ मुहूर्त मे जन्म होने के कारण गोगाजी का भव्य जन्मोत्सव रखा गया । तो वही अशुभ मुहूर्त मे जन्मे जुड़वा भाइयों की कोई खुशियां नहीं मनाई गई यह देख माता काछ के मन मे गोगाजी के प्रति द्वेष उत्पन्न हुआ और काछ ने सोचा उसके जन्म लेते ही इसे मेरे बेटे से श्रेष्ठ माना जा रहा है । कल जब यह बालक बड़ा होगा तो मेरे बच्चे के हिस्से का राज पाठ भी इसे ही दे दिया जाएगा ।
काछ किसी भी तरह गोगाजी को रास्ते से हटाने के लिए योजना बनाने लगी तो वही माता बाछल को काछ काछ के मंसूबे भली भाति ज्ञात थे माता बाछल और पिता जेवर सिंह गोगाजी को लेके गुरु गोरखनाथ के पास आ पहुँचे जब गुरु गोरखनाथ जी ने माता से आने का कारण पूछा तो माता ने गुरु गोरखनाथ से कहा आप तो सर्व ज्ञाता है मेरे पुत्र को मेरी बहन काछ से 17 है अतः जब तक गोगा युवा नहीं हो जाता तब तक आप इसे अपने साथ रख इसे शिक्षा प्रदान करें गुरु गोरखनाथ ने बालक गोगाजी चौहान को गोद मे लिया और अपनी प्रचंड योग शक्तियों से गोगाजी को और भी अधिक शक्तिशाली बना दिया।
गुरु ने गोगा जी को माता बाछल को लौटते हुए कहा की आप निश्चित रहे माता गोगाजी को रक्षा की आवश्यकता नहीं और जब गोगाजी 12 वर्षों का हो जाएगा । तब मई इसे ले जाऊँगा और विद्या मे निपुण करूंगा जिसके बाद गुरु चरणों मे प्रणाम कर आज्ञा अनुसार जेवर सिंह और माता बाछल लौट आए । थोड़ा समय बीत ने के बाद काछ ने अपनी नन्द छबीली के साथ मिलकर गोगाजी को मारने का षडयंत्र रचा और छबीली ने दूध मे मिला कर गोगाजी को विष दे दिया ।
छबीली ने जैसे ही विषैला दूध गोगाजी को पिलाया तो देखा गोगाजी कड़वा विष युक्त दूध बड़े आनंद के साथ पी गए यह देख छबीली के पैरों तलें जमीन खिसक गई और आखे फटी की फटी रह गई तब गोगाजी ने छबीली से कहा कि यह तो बहुत ही स्वादिष्ट है कृपया थोड़ा और पिलाइज छबीली ने देखा इतना छोटा बालक बोल कैसे रहा है तो डर के मारे छबीली वहा से भागती हुई काछ के पास आ पहुंची और सारी बात काछ को कह सुनाई काछ को उसकी बातों पर विश्वास नहीं हुआ ।
इसे मात्र एक भ्रम समझ काछ ने अपने षडयंत्र का का सिलसिला जारी रखा लेकिन लाख कोशिक्षे करने के बाद भी काछ गोगाजी महाराज को एक खरोंच तक पहुचाने में नाकामयाब रही अब गोगाजी के साथ -साथ काछ के पुत्र भी थोड़े बड़े हो चुके थे जहा एक तरफ गुरु गोरखनाथ की भविष्यवाणी से चिंतित माता बाछल गोगाजी को शिक्षा देता की अर्जुन और तुम्हारे ही भाई है तो , वही दूसरी ओर काछ अपने पुत्रों के मन मे गोगाजी के प्रति द्वेष उत्पन्न कर रही थी
काछ ने अपने पुत्रों से कहा तुम दो हो और वह अकेला फिर भी तुम उससे मार खाकर आते हो अगर वह जीवित रहा तो तुम्हें कभी ददरेवा की राजगद्दी देना तो दूर उसके आसपास फटकने तक नहीं देगा । अतः तुम्हें गोगा को बल से नहीं अपितु छल से मारना होगा जिसके बाद अर्जुन और सर्जन ने योजना बनाई ।
और गोगाजी को खेलने के बहाने अपने साथ ले गए । और ददरेव मे बने एक तालाब के पास ले गए गोगाजी को पीछे से धक्का दे दिया गोगाजी तालाब के गहरियों मे आ पहुँचे और इसी तालाब के तल पर नागराज तपस्या कर लीन बैठा था । यह देख गोगाजी के मन मे प्रश्न उत्पन्न हुएऔर उन्होंने तक्षक की तपस्या भंग करते हुए उससे पूछ ही लिया की आप यहाँ कर क्या रहे है ।
तपस्या मे आए विघ्न के कारण तक्षक को गोगाजी पर अत्यधिक क्रोध आया और तक्षक नाग गोगाजी को क्षति पहुचाने की मंसा से आगे बढ़ने लगा तभी गुरु गोरखनाथ वह प्रकट हुए और तक्षक को रोक तक्षक ने गुरु गोरखनाथ जी से पूछा कौन है यह मायावी बालक जिसने मेरी तपस्या भंग कर दी और आप इसकी रक्षा करने क्यों आए है । तब गुरु गोरखनाथ ने कहा की सायद तुमने इसे पहचाना नहीं मै यह इसकी रक्षा नहीं करने आया हु अपितु तुम्हारे प्राणों की रक्षा हेतु आया हूँ ।
यह वही बालक है जिसे गर्भ मे ही खत्म कर देना चाहते थे तक्षक को गोगाजी की असीमित शक्तियों का भलीभाँति अभ्यास था ना चाहते हुए भी नागराज तक्षक ने गोगाजी से क्षमा माँगी और गोगाजी जी भी उसकी तपस्या मे आए विघ्न के लिए खेद प्रकट कर पुनः भूलोक पर लौट आये । अपने द्वारा किये गए छल कपट को देखकर गोगाजी चौहान का रक्त ज्वाला मे बदल गया और गोगाजी अकेले ही अपने दोनों भाइयों पर टूट पड़े गुरु गोरखनाथ के आशीर्वाद से उत्पन्न होने के कारण अर्जुन औ र सर्जन भी बलशाली थे।
किंतु गोगाजी पर गुरुजी की विशेष कृपा होने के परिणाम स्वरूप काफी समय तक चली मुठभेड़ के बाद गोगाजी ने दोनों भाइयों को बुरी तरह से पीट – पीट कर जख्मी कर दिया लेकिन अभी वह समय अना बाकी था और इसी दौरान गोगाजी के पिता जेवर सिंह वहा आ पहुँचे और गोगाजी को रोकते हुए अर्जन और सर्जन को महल लौट जाने का आदेश दिया । बुरी तरह से जख्मी चोटे खाए दोनों भाई अपनी माता काछ के पास पहुँचे और रोते हुए सर व्रतांत माता को कह सुनाया जिसके बाद माता काछ घेवर सिंह के पास पहुंची ।
और अपनी चिंता व्यक्त करते हुए उन्हे अमरपाल सिंह चौहान के राज्य के बटवारे की माँग करने को कहा जिसके बाद ना चाहते हुए भी घेवर सिंह मजबूरन पिता अमरपाल सिंह के समक्ष उपस्थित हुए और अमरपाल सिंह से आधा राज्य उनके पुत्रों को देने की माँग की चौहान राजवंश मे आज से पहले कभी इस प्रकार का बँटवारा नहीं हुआ था । किंतु भविष्य मे होने वाली आशंकाओ को देखकर अमरपाल सिंह चौहान बंटवारे के लिए मन गए । लेकिन इसके बदले उन्होंने एक शर्त रखी की बंटवारा केवल राज्य के शासन का होगा । किंतु सभी को ददरेवा के महलों मे ही रहना पड़ेगा ।
जिसके बाद घेवर सिंह को बंटवारा मे सांभर का क्षेत्र सौंप दिया गया और अब गोगाजी का महल से बाहर जाना लगभग प्रतिबंधित कर दिया गया गोगाजी अपना अधिकतर समय अस्तबल मे अपने नीले से बाते करने मे गुजार देते आपको बता दे की नीला कौन था , जब गुरु गोरखनाथ ने बाछल माता को पुत्र प्राप्ति के लिए गगल दिया तो दयालु माता बाछल ने उसका कुछ हिस्सा अपनी घोड़ी को खिला दिया क्योंकि वह घोड़ी भी निःसंतान थी गगल के अंश से उत्पन्न होने के कारण गोगाजी का नीला घोडा भी असीम शक्तियों से परिपूर्ण था।
इसका अंदाजा आप इस बात से लगा सकते है की बाल्यावस्था मे गोगाजी खेल – खेल मे नीले पर सवार होकर स्वर्ग लोक के इंद्रासन पर जा बैठे थे । और गोगाजी से अनजान देवराज इन्द्र ने उन पर कई अस्त्र – शस्त्र से प्रहार किया किंतु गोगाजी का एकबल भी बांका ना हुआ तभी गुरु गोरखनाथ वहा प्रकट हुए और दोनों को रोकते हुए एक दूसरे से परिचित करवाया जिसके बाद गुरु के आज्ञा का पालन करते हुए गोगाजी पुनः महलों मे लौट गए इसी दौरान गोगाजी अब 12 वर्ष के हो चुके थे । और गुरु गोरखनाथ माता बाछल और जेवर सिंह को दिए वचन के अनुसार गोगाजी को योग सिद्धियों मे परिपूर्ण करने के लिए अपने साथ ले गए कई वर्षों को कठिन साधना के बाद गुरु से शिक्षा प्राप्त कर गोगाजी पुनः ददरेवा के महलों मे लौट आए । जय हो गोगाजी महाराज की जय …