कैलाश पर्वत के ध्यानी की अर्धांगिनी ‘ माँ सती ‘ ही दूसरे जन्म मे पार्वती के रूप मे विख्या हुई । उन्हें ही शैलपुत्री, ब्रम्हाचारिणी, चंद्रघंटा, कुष्मांडा, स्कंदमाता, कात्यायिनी, कालरात्रि, महागौरी, सिद्धिदात्री आदि नामों से जोड़कर देखा जाता हैं।
माँ दुर्गा की सच्ची कथा
सतयुग के राजा दक्ष की पुत्री सती माता को ही ‘ सती ‘ कहा जाता है । शिव के कारण उनका नाम शक्ति हो गया । हालांकि उनका असली नाम ‘ दाक्षायनी ‘ था । यज्ञ कुंड मे कूदकर आत्मदाह करने के कारण भी उन्हे सती कहा जाता हैं । बादमे उन्होंने माता पार्वती के रूप मे जन्म लिया । और पार्वती उनका नाम इसलिए पड़ा क्योंकि वह ‘ पर्वतराज ‘ अर्थात वह पर्वतों के राजा की पुत्री थीं ।
पिता की अनिच्छा से ही माता पार्वती जी ने हिमालय के पर्वतों में ही रहने वाले योगी ‘ भगवान शिव ‘ से विवाह कर लिया । ” एक यज्ञ मे जब दक्ष ने सती और शिव को न्यौता नहीं दिया , फिर भी माता सती भगवान शिव के मना करने के बावजूद अपने पिता के एक बड़े यज्ञ मे पहुँच गई लेकिन दक्ष ने शिव के विषय मे सती के सामने ही अपमानजनक बातें कहीं । माता सती को यह सब बर्दाश्त नहीं हुआ और वही यज्ञ कुंड मे कूद कर अपने प्राण त्याग दिए । “
यह खबर सुनते ही शिव ने अपने सेनापति वीरभद्र को भेजा , जिसने सती के पिता दक्ष का सिर काट दिया । इसके बाद दुखी होकर सती के शरीर को अपने सिर पर धारण कर शिव बहुत ही क्रोधित होकर धरती पर घूमने लगे । इस दौरान जहाँ – जहाँ माता सती के शरीर के अंग या आभूषण गिरे , ” वह स्थान शक्तिपीठ का नाम हो गया । इसका यह मतलब नहीं की अनेक माताएं हो गई ।
माँ एक है रूप अनेक हैं । माता पार्वती ने ही ” शुंभ – नीशुंभ , महिषासुर आदि राक्षसों का ” वध किया था ।
माँ दुर्गा का जन्म क्यों और कैसे हुआ ?
माँ दुर्गा को आदि शक्ति , भवानी और और अन्य कई नामो से जाना जाता हैं । पौराणिक कथाओं के अनुसार माँ दुर्गा का जन्म दैत्यो के विनाश के लिए हुआ था । ” वैसे तो सारा साल ही माँ दुर्गा की पूजा की जाती हैं । लेकिन नारात्रों के दौरान के समय नौ दिन ‘ माता रानी ‘ पृथ्वी पर आकर भक्तों के बीच रहती हैं । ” इसलिए माँ दुर्गा को प्रसन्न करने के लिए सभी भक्त विधि – विधान पूर्वक आरती , पूजा एवं दुर्गा सप्तमी का पाठ करते हैं .. आज हम आपकों बताएंगे कि माँ दुर्गा की उत्पत्ति कैसे हुई ।
एक बार सभी देवगण असुरों के अत्याचारों से तंग आ चूकें थें तब ब्रम्हा जी ने उन्हे बताया कि दैत्यराज को ये वर मिला हैं , कि उसकी मृत्यु कुंवारी कन्या के हाथ से ही होगी । तभी सभी देवों को एक तरकीब सूझी । उन्होंने मिलकर अपनी – अपनी शक्तियों से एक देवी को प्रकट किया विभिन्न देवताओं की देह से निकले हुए तेज से ही देवी के अलग – अलग अंग बने ।
भगवान शंकर के तेज से देवी का मुख प्रकट हुआ , यमराज के तेज से मस्तक और बाल , विष्णु जी के तेज से भुजाएं , चंद्रमा के तेज से स्तन , इन्द्र के तेज से कमर , वरुण के तेज से जंघा , पृथ्वी के तेज से नितंब , ब्रम्हा के तेज से चरण , सूर्य के तेज से दोनों पैरों की उँगलिया , प्रजापति के तेज से सारें दांत , अग्नि के तेज से दोनों नेत्र , संध्या के तेज से भौंहें , वायु के तेज से कान तथा सभी अन्य देवताओं के तेज से देवी के भिन्न – भिन्न यंग बनें ।
फिर शिव जी ने उस महाशक्ति को अपना त्रिशूल दिया । लक्ष्मी जी ने कमल का फूल दिया , विष्णु ने चक्र , अग्नि ने शक्ति व बाणों से भरे तरकश , प्रजापति ने स्फटिक मणियों की माला , वरुण ने दिव्य शंख , हनुमान जी ने गदा , शेषनाग ने मणियों से सुशोभित नाग , इन्द्र ने वज्र भगवान राम ने धनुष , वरुण देव ने पक्ष व तीर , ब्रम्हा जी ने चारों वेद तथा हिमालय पर्वत नें सवारी के लिए शेर प्रदान किया ।
इसके अतिरिक्त समुद्र ने बहुत उज्ज्वल हार , कभी न फटने वाले दिव्य वस्त्र , चुड़ामणि , दो कुंडल , हाथों के कंगन , पैरों मके नूपुर , तथा अंगूठिया भेंट की ।
इन सभी शक्तियों को देवी ने अपनी अठारह भुजाओ में धारण किया । ” तब जाकर माँ दुर्गा की उत्पत्ति हुई । ” माँ दुर्गा इस सृष्टि की आध शक्ति हैं । ‘ यानि आदि शक्ति हैं ‘
पितामह ब्रम्हा जी , भगवान विष्णु और भगवान शंकर उन्ही की शक्ति से सृष्टि की उत्पत्ति , पालन पौषण और संहार करतें हैं । अन्य देवता भी उन्ही की शक्ति से शक्तिमान होकर सारी कार्य करते हैं ।
माँ दुर्गा के इस तेज को देखकर दैत्यराज बहुत ही ज्यादा डर गया था । लेकिन देवी दुर्गा नें अपने शक्तिशाली रूप व शेर और शस्त्रों से उसे मार दिया ।
तभी से इस शक्तिशाली देवी को माँ दुर्गा के नाम से जाना जाता हैं । और आज भी माँ दुर्गा पूरे संसार का कल्याण ही करती हैं । और जो सच्चे मन से इसकी पूजा अर्चना करता हैं । उसकी हर मानोकामना पूरी जरूर होती हैं । ” जय माता दी “
माता का रूप
माँ के एक हाथ मे तलवार और दूसरे मे कमल का फूल हैं । पीतांबर वस्त्र , सिर पर मुकुट , मस्तक पर श्वेत रंग का अर्थचंद्र तिलक और गले मे मणियों – मोतियों का हार हैं । और माता की सवारी शेर हमेशा माता जी के साथ ही रहता हैं ।