
कूर्म अवतार – भगवान विष्णु जी का दूसरा अवतार । Vishnu Avatar
क्या है समुद्र मंथन के पीछे की कहानी ?
» पुरानो के अनुसार समुद्र मंथन को सफलतापूर्वक पूर्ण करने के लिए भगवान श्री विष्णु ने अपना दूसरा अवतार कूर्म अवतार को ′कच्छप′ अवतार भो कहते है। कूर्म अवतार मे ही भगवान विष्णु ने समुद्र मंथन मे मंदार पर्वत को अपने कवच पर संभाला था।
» विष्णु पुराण के अनुसार एक बार भगवान शंकर के अंशावतार दुर्वासा ऋषि पृथ्वीतल पर विचर कर रहे थे। घूमते – घूमते उन्होंने एक विददाधारी के हाथ मे पारिजात पुष्प की एक दिव्य माला देखी। जिसके सुगंध दूर- दूर तक फैल रही थी ।
» उसकी सुगंध से मोहित होकर ऋषि दुर्वासा ने उस सुंदरी से वह माला माँगी। जिसके बाद विददधरणी ने आदरपूर्वक प्रणाम करते हुए वह माला मस्तक पर लेकर आगे चलने लगे।
» इसी समय उन्होंने ऐरावत पर देवताओ के साथ देवराज इन्द्र को आते देखा। उन्हे देखकर ऋषि दुर्वासा ने उस दिव्य माला को आओने सिर से उतार देवर राज इन्द्र के ऊपर फेंका । जिसे देवराज इन्द्र ने ऐरावत के मस्तक पर डाल दी। ऐरावत ने दिव्य माला को अपने अपने मस्तक से उतार कर भूमि पर फेंक दिया।
» इसे देख ऋषि दुर्वासा क्रोधित हो गए और इन्द्र पर गुस्सा करते हुए कहा, हे देवराज अपने ऐश्वर्य के नशे मे चूर होकर अपने मेरी दी हुई माला का आदर तक नही किया । इसलिए मै श्राप देता हूँ। की तेरा त्रिलोकीका वैभव नष्ट हो जाएगा।
» उनके श्राप से सभी देवताओ ने अपनी शक्ति खो दी। श्राप के कारण देवराज इन्द्र के प्रिय ऐरावत भी उनसे दूर हो गया। ऋषि दुर्वासा के श्राप से तीनों लोको को माता लक्ष्मी से वंचित होना पड़ गया। तिन्हों लोको का वैभव भी लुप्त हो गया।
» जिसके बाद सभी देवता भगवान ब्रह्म के पास गए और कुछ उपाय सुझाने को कहा । जिसपर ब्रह्म जी ने सभी देवताओ को भगवान विष्णु के पास जाने को कहा।
» भगवान ब्रह्म की सलाह पर सभी देवता भगवान विष्णु के पास गए। जहाँ भगवान विष्णु ने उन्हे समुद्र मंथन करने को कहा। भगवान विष्णु ने बताया की समुद्र मंथन से जो अमर हो जाएंगे।
» प्रभु श्री हरी ने विश्व के पुनः निर्माण और माता लक्ष्मी के पुनरुद्धार के लिए समुद्र मंथन का मार्ग सुझाया, लेकिन सभी देवता इसे अकेले कर पाने मे समर्थ नही थे। जिसके बाद इसके लिए असुरों को भी इस कार्य मे सम्मिलित कराने की योजना बनाई गई ।
» और प्रभु ने देवराज इन्द्र को यह कार्य सौपा की वह असुरों के पास जाकर उन्हे अमृत का लोभ दिखाकर इस कार्य के लिए मनाए , । तब देवराज भी इस कार्य मे देवताओ की सहायता के लिए तैयार हो गया।
» यह पहला ऐसा कार्य था, जिसे देव और दानव साथ मे करने वाले थे। इससे पहले , इन दोनों समूहों मे सिर्फ घमासान युद्ध ही देखने को मिला था। मगर समुद्र का मंथन इतना सहज नही था, इसलिए श्री विष्णु के आज्ञ से मन्दराचल पर्वत को समुद्र के बीचों – बीच मथनी बनाकर खड़ा कर दिया।
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» परंतु अब भी समुद्र को मथने के लिए किसी लंबी रस्सी का उपाय नही सूझ रहा था, तब प्रभु ने देवधिदेव महादेव से उनके गले के नाग वासुकि को इस कार्य के लिए देने का आग्रह किया। भगवान शंकर जी ने नाग वासुकि को इस काम के लिए सौंप दिया।
» अब दोनों समूहों मे इस बात को लेकर मतभेद होने लगा की इस रस्सी रूपी नाग का कौन स हिस्सा किस समूह के पाले मे आएगा। इसे लेकर जब असुरो ने पुछा की कौन सा हिस्सा मजबूत है, तो उन्होंने मुख के हिस्से को लेने के लिए कहा।
» इसके बाद प्रभु के कथन अनुसार असुरों ने भी मजबूत हिस्से को ही लेने का निर्णय किया और देवताओ को वासुकि का पिछला हिस्सा मिला ।
» समुद्र मंथन का कार्य जैसे ही प्रारंभ हुआ तो सभी ने देखा की मंदराचल पर्वत धीरे-धीरे जल मे समाने लगा है क्योंकि उसका भार उठाने के लिए कोई मजबूत वस्तु वहाँ मौजूद नही था। सब सोच मे पड़ गए की अब समुद्र मंथन कैसे पूरा होगा।
» तब तारणहार प्रभु ने स्वयं कच्छप का अवतार धारण करते हुए उस मंदार पर्वत को अपनी पीठ पर उठा लिया । कहा जाता है की प्रभु के इस कूर्म अवतार मे उनकी पीठ का हिस्सा एक लाख योजन से भी ज्यादा था। उन्होंने मंदार पर्वत को तब तक उठाए रखा, जब तक समुद्र मंथन पूरा नही हुआ।
» समुद्र मंथन मे सबसे पहले हलाहल निकला था, जिसे महादेब ने पी लिया था, क्योंकि उनके अलावा कोई भी संसार मे इसको अपने शरीर मे धारण करने की क्षमता नही रखता था। हलाहल को पीते ही , महाकाल का कंठ नीला पड़ गया और तभी से उन्हे नीलकंठ के नाम से भी जाना जाने लगा।
» हलाहल के बाद समुद्र मे से कल्पवृक्ष , ऐरावत हाथी , कामधेनु गाय, कौस्तुभ मणि जैसे रत्नों सहित तेरह और रत्न और अप्सराये बारह आए।
» अंत मे समुद्र मे से माता लक्ष्मी का भी उदय हुआ और उनके आते ही सभी देवताओ की श्री वृद्धि हो गई। तब सभी देवताओ ने नतमस्तक होकर प्रभु के कुर्मावतार को शत-शत नमन करते हुए उनका गुणगान किया और इस प्रकार भगवान श्री विष्णु ने एक बार फिर धरती पर विश्व का निर्माण किया।